Thursday, January 3, 2013

कश्मीरी शाल वाला


आज सुबह, एक लम्बे अरसे के बाद, एक चाय की दुकान पर एक कश्मीरी शाल वाले से मुलाकात हो गयी. उसे देख कर बचपन की ढेर सारी यादें ताज़ा हो गयीं. कश्मीरी शाल वालों से मेरा काफी पुराना नाता रहा है. बचपन से, इन कश्मीरी शाल वालों को गली मुहल्लों में घूम-घूम कर शाल बेचते देखता आया हूँ. उन्हें पहचानना काफी आसान होता है. लम्बा चहरा, गोरा वर्ण, लगभग चौथाई इंच की तराशी हुई दाढ़ी, अच्छी कद-काठी और पास में एक बड़ा सा सफ़ेद गट्ठर. वो हमेशा से मेरे लिए काफी दिलचस्प रहें हैं. 

बचपन से कश्मीर में फैले आतंकवाद के बारे में रूचि के साथ सुनता-पढता रहा, और उन दिनों जब भी माँ या आस पास की आंटिया, उन्हें बुलाती थीं तो मैं काफी सहम सा जाता था. मैं डरता था के कहीं ये भी कोई आतंकवादी तो नहीं. जब वो अपना गट्ठर खोलते, मेरी धड़कने  बढ़ने लगतीं, ऐसा लगता मानो ये अभी अन्दर से AK - 47 निकलेगा और हम पर अन्धाधुन गोलिया बरसा देगा. कई बार तो एतियात के तौर पर मैं अपनी जेब में एक रसोई वाली छुरी भी छुपा लेता, पर जब पूरे गट्ठर से कोई भी मशीनगन या कार्बाइन नहीं निकलती, तो मैं निराश हो कर घर में वापिस लौट जाता. 

ना जाने कितनी बार मैंने उनसे कश्मीर के बारें में पूछा होगा. पर हर, बार चाहे जिस भी तरीके या जितना भी घुमा फिरा के पूछा हो, मेरे प्रश्न हमेशा एक ही रहें हैं, " कश्मीर के लोग भारत के साथ रहना चाहते हैं या पाकिस्तान के साथ" और " वहां की समस्याओं के लिए कौन जिम्मेदार है". प्रश्न पूछने से पहले ही मेरे  मन में, आदर्श उत्तर तैयार होते थे, मैं सुनना चाहता था के वो कहें कि, वो भारत के साथ रहना चाहते हैं और कश्मीर की सारी समस्याओं के लिए पाकिस्तान जिम्मेदार है. पर बदकिस्मती से हमेशा ही उन्होंने मुझे निराश किया और हर बार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष शब्दों मैं उनका उत्तर एक ही रहा है  क्रमशः " स्वायत्तता" तथा " फौजी". मैं निराश हो जाता, और आपने मन में उन्हें गुमराह, अनपढ़ तथा बेवक़ूफ़ मान कर क्षमा कर देता.  

आज तक़रीबन सात या आठ साल के बाद एक बार फिर मौका मिला उनसे रूबरू होने का. सड़क के किनारे की एक चाय की दुकान पर एक कश्मीरी शाल वाला बैठा दिखा, उसे देख कर एक अजीब सी खुशी महसूस हुई, मैंने सोचा की एक बार फिर देखता हूँ की इनकी सोच मैं कुछ बदलाव आया है या नहीं, लेकिन पहले से पृथक अंतर इतना था कि, आज मेरे मन में कोई आदर्श उत्तर नहीं थे. मैं भी वहां पहुंचा और चाय वाले को एक स्पेशल चाय बनाने को कहा, चाय वाले को शायद 'स्पेशल' शब्द पसंद नहीं आया, और उसने मुझें खरी खोटी सुना दी. खैर बर्दास्त का घूंट पी कर मैंने मामले को जाने दिया और अपने मुख्य मिशन पर जुट गया. 

मेरी शाल वाले के साथ हुई बातचीत के अंश : 

मैं : और कश्मीर मैं तो बहुत ठंढ होगी अभी तो ! 

शाल वाला : हाँ जी बहुत ज़्यादा, यहाँ तो कुछ भी ठंढी नहीं हैं. 

मैं : और कश्मीर मैं कहाँ से हैं आप ?

शाल वाला : जी अनंतनाग, आप गएँ हैं क्या कश्मीर कभी ? 

मैं : नहीं , कश्मीर तो नहीं गया लेकिन जम्मू गया हूँ ऎक बार.

शाल वाला : कहाँ वैष्णोदेवी ? 

मैं : हूँ.

मैं : अनंतनाग कितनी दूर है, श्रीनगर से ? 

शाल वाला : श्रीनगर जाने के रस्ते में आता है, पहले है उससे.

मैं : ओं, और अब तो घाटी में शांति है काफी, टूरिस्ट वेगेरह भी जाने लगें हैं अब तो, सुना है 

शाल वाला : हाँ 2010  बाद से सब लगभग सही है, टूरिस्ट तो हमेशा से ही आते रहें हैं. 

मैं : नहीं मेरा मतलब थोडा कम गया था ना टूरिस्ट का आना, आतंकवाद वगेरह के वजह से. 

शाल वाला : (चेहरे पर असहमति के भाव परन्तु फिर भी सहमति में सर हिलाते हुए)

मैं : और आपके घर में कौन कौन है उधर ?

शाल वाला : जी एक भाई है, माँ और बाप. 

मैं : भाई क्या करता है आपका ? 

शाल वाला : जी वो भी शाल बेचता है.

चाय बन चुकी थी ... और चाय वाला हमें चाय का गिलास पकड़ते हुए (उसकी आँखों मैं अभी भी स्पेशल चाय की खुन्नस साफ दिख रही थी, और मैंने निर्णय लिया अब जिन्दगी में कभी भी स्पेशल चाय बनाने नहीं बोलूँगा किसी को)

एकाधा चुस्की लेने और थोड़ा इधर-उधर देखने के बाद मुझसे नहीं रहा गया और संकोच के साथ मैंने पूछ ही लिए अपने दो पेटेंटेड सवाल. 

मैं : अच्छा एक चीज बताइए, ये जो इतना सुनते हैं कश्मीर के बारे में, टीवी में, पेपर में, एक्चुअल प्रॉब्लम क्या है वहां की ? कौन जिम्मेदार है इन सब प्रोब्लेम्स के लिए ? 

शाल वाला : "फौजी लोग" 

मैं : हूँ.... ओके....

शाल वाला : ये लोग 2010  मैं पब्लिक पर फायरिंग कर दिया,140 आदमी लोग मारा गया, जवान 
लड़का लोग था सब. 

मैं : वो 2010 में...

(मुझे बीच मैं रोकते हुए... ) 

शाल वाला : मनमानी करता है ये लोग, जैसे चाहता है वैसे करता है....

मैं : ओह.. लेकिन आतंकवादी भी तो बहुत हैं वहां, आर्मी नहीं होगी तो कैसे कम चलेगा ? 

शाल वाला : मिलिट्री वाला लोग सब बॉर्डर पर रहे, हर जगह क्यों भरा हुआ है, सब पैसा का बात है, पहले पैसा ले कर उनको अन्दर आने देता है फिर सबको ढूंढ के गोली मारता है.

आर्मी पर रिश्वत ले कर आतंकवादियो को बॉर्डर पार कराने का आरोप मैं तो पहली बार सुन रहा था, और इस चीज से काफी अचंभित हुआ, पता नहीं उसकी बात में कितनी सच्चाई थी, या उसे खुद कितनी जानकारी थी इस बारे में, मगर ये मेरे लिए निश्चित ही बिलकुल हैरान करने वाली बात थी.

मैं : ओह !!  तो कश्मीर के लोग किसके साथ रहना चाहते हैं, इंडिया, पाकिस्तान या आजाद? 

शाल वाला : कोई फड़क नहीं पड़ता है अब तो, जो रखे बस अमन से जीने दे.

मैं : ओ.... वैसे, फारूख अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला लोग कैसे हैं ? 

शाल वाला : सब एक जैसा ही है, सबको पैसा चाहए बस, सब आपस में लड़ता  रहता है और बीच में पब्लिक पिस्ता है बस. 

मैं : ओह और ये हुरियत वाले लोग ?

शाल वाला : हा हा (उसके चेहरे पर एक एक ठगे जाने के बाद वाली मुस्कराहट) वो लोग तो इन सब से बुरा है, बोलता है आजादी दिलाएंगे तुम लोगों को, हमारे साथ चलो, फिर फ़ौज के सामने पब्लिक को आगे कर देता है और खुद पीछे चला जाता है, और जब गोली चलता है तो (अपने सीने को बंद मुठी से ठोकते हुए) हम लोग मरता है हमलोग !! वो लोग सब भाग जाता है. 

कोई देखने वाला नहीं है, कुछ नहीं हो सकता, दोनों में से कोई मुल्क पीछे नहीं हटेगा कभी और ऐसे ही जीना पड़ेगा सबको हमेशा. 

मैं : (उसे झूठी सान्तवना देने के लिए मैंने कहा ) अरे नहीं चिंता मत कीजिये, AFSPA  को वापिस लेने को लेकर बात चल रही है सब ठीक हो जायेगा धीरे-धीरे.

शाल वाला, स्तंभित मुद्रा में सर हिलाते हुए और मुझे एहसास हुआ की शाल वाले को AFSPA  के बारे मैं नहीं पता, मैंने अन्तः मन मैं खुद को फटकार लगायी की वो शाल वाला ही है, उसे इन कानूनों के बारे मैं नहीं पता होगा और शायद पता होने की जरुरत भी नहीं है. 

चाय वाले को पैसे दिए, बात को समाप्त करते हुए मैंने शाल वाले से विदा मांगी, उसने भी मुकुराते हुए हामी भरी और (कुछ शाल बेचने के मकसद से जैसा कि मुझे लगा) मेरे घर का पता पूछा, मैंने भी मुस्कुराते हुए उसे अपने घर का पता बताया और कभी आने का निमंत्रण दिया और उसने आने का वादा किया.



कश्मीरी शाल वाले के साथ ये मेरी कोई पहली मुलाकात नहीं थी और ना ही इन विगत वर्षों में कश्मीर को ले कर मेरे दृष्टिकोण में कोई खास बदलाव आया है. मैं हमेशा से इसे भारत का एक अभिन्न्य अंग मानता रहा हूँ परन्तु आज सोचने पर विवश हूँ, कि कश्मीर की परिभाषा आखिर क्या है ? क्या हमारे लिए कश्मीर का मतलब  सिर्फ हिमालय कि गोद में बसा वो खुबसूरत सा भौगोलिक क्षेत्र है, जो कि हमें किसी भी कीमत पर चाहए, चाहे इसके लिए इसके वाशिंदों कि क़ुरबानी ही क्यों ना देनी पड़े, या कश्मीर का मतलब वहां के लोगों से है, जिनका साथ हम कभी नहीं छोड़ेंगे चाहे वो खुबसूरत सा भौगोलिक क्षेत्र  नष्ट ही कियों ना हो जाये? 

दुर्भाग्य से  इस प्रश्न का सही उत्तर किसी को नहीं पता, ना ही भारत-पाकिस्तान के लोगों को और ना ही वहां की सरकारों को. सभी बस हठ (ज़िद्द) के बीज बोते हैं, उसे खून से सींचते हैं और अंत मैं नफरत की फसल कटते हैं. सियासत की जंग मैं हार हमेशा इंसानियत की ही होती है. 1947 से आज तक अगर बंदूकें कोई फैसला नहीं कर सकीं तो एक बार बंदूकों को नीचें कर के तो देखो, क्या पता कुछ अच्छा हो जाये. अगर भारत की ही बात करें तो इसने कश्मीर को अपने साथ मिला कर ही आजतक क्या कर लिया, कौन सा रोजगार दे पाए आजतक हम लोग उन्हें, और कौन सी शिक्षा. लोग अपने घरो में सुरक्षित नहीं, सेना पब्लिक पर गोलियां चलती है, मानव अधिकार का सड़कों पर खुला उल्लंघन हो रहा है और जनता का सीधा शोषण, क्या यही भविष्य देनें के लिए चाहए कश्मीर हमें. 

दुर्भाग्य से कश्मीरऔर हमारे देश के भाग्य विधाता वो लोग हैं जिन्हें जलती चिताओं पर रोटीयां  सेंकने की आदत पड़ चुकी है. राजनीतिक एवं आर्थिक हितों को सर्वोपरि मानने वाले इस समाज मैं इंसानियत के लिए कोई जगह शेष नहीं है. कश्मीर आज एक चुनावी मुद्दा हैं, कोई दल धर्मनिरपेक्षता  की तोपें चला रहा है तो किसी को लाल चौक पर तिरंगा लहराकर शांति बहाल करना है. कुछ भी हो पर कश्मीर की जनता इन सब मैं कहीं नहीं हैं, उनके हितों की रक्षा करने वाला कोई नहीं है. कोई सरकार आये या जाये कोई फर्क नहीं पड़ता हैं, सभी पड़े रहेंगे बेसुध सत्ता और शक्ति के नशे मैं. बॉर्डर के उस पार का भी क्या कहा जाये, अपने देश वालों को, दो वक़्त की रोटी तो दिला नहीं पाए, वे आजतक, चले हैं कश्मीर को आजाद कराने. जो टुकरा मिला कश्मीर का वहां तो दूसरा नरक पैदा कर दिया और पूरा कश्मीर लेकर क्या तीसरा नरक बनायेंगे ? 

समय आ गया है कि हम आत्ममंथन करें, वर्षों पुराने मिथकों को तोड़ें, एक नयी शुरुआत करें, अपनी गलतियों से सीखें, उन्हें सुधारें, राजनेतिक लाभ या क्षति के विगणन से ऊपर उठ कर मानवीय परिपेक्ष मैं विषय वास्तु को देखें और सही निर्णय लें, इंसानियत के लिए एक नयी मिसाल कायम करें और एक उज्वल भविष्य का निर्माण करें. 

कश्मीर या इसके जैसे अन्य जटिल समस्याओ का समाधान हमारे अन्दर ही छुपा है बस इसे पहचानने कि जरुरत है.